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 समन्वय

 

सभी प्रमुख यौगिक प्रणालियों में मनुष्य के जटिल और पूर्ण रूप पर क्रिया की जाती है तथा उसकी उच्चतम सम्भावनाओं को प्रकाश में लाया जाता है । इन प्रणालियों के ऐसे स्वरूप को देखते हुए यह पता लगेगा कि इन सब के समन्वय को यदि विशाल रूप में विचार और प्रयोग में लाया जाय तो इसका परिणाम पूर्णयोग हो सकता है । किन्तु सब अपनी प्रवृत्तियों में इतनी विभिन्न हैं तथा अपने रूपोंमें इतनी अधिक विशिष्ट और जटिल हैं और साथ ही इनके विचारों और पद्धतियों के परस्पर-विरोध को इतने लम्बे समय तक पुष्टि मिलती रही है कि इन्हें यथार्थ रूप से संयुक्त करने की विधि का पता नहीं चलता ।

 

     बिना विचार और विवेक के एक संघात में इनको एकत्र कर देने का अर्थ समन्वय नहीं, बल्कि एक 'गड़बड़झाला' होगा । हमारे मानव-जीवन के इस छोटे से काल में इनका बारी-बारी से अभ्यास करना सहज नहीं है, विशेषतया जब कि हमारी शक्तियां भी सीमित हैं, और इस बोझिल प्रक्रिया में कितना परिश्रम व्यर्थ जायगा इसकी तो बात ही क्या । वस्तुत: कभी-कभी तो हठयोग और राजयोग का बारी-बारी से अभ्यास किया जाता है । अभी हाल में श्रीरामकृष्ण परमहंस के जीवन में इस बात का एक विशेष दृष्टान्त देखने में आया हे : उनमें एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति मौजूद थी, जिसने पहले सीधे ही भगवान् की प्राप्ति की, मानो स्वर्ग के राज्य को बलपूर्वक हस्तगत कर लिया और बाद में जिसने हर एक यौगिक प्रणाली का प्रयोग करके द्रुतगति से उसका सार निकाल लिया । उसका उद्देश्य सदा पूरे विषय के अन्तस्तल तक अर्थात् प्रेम की शक्ति के द्वारा, विभिन्न प्रकार के अनुभवों में अन्तर्निहित आध्यात्मिकता के विस्तार तथा एक सहज ज्ञान की स्वाभाविक क्रीड़ा के द्वारा भगवान् की अनुभूति और प्राप्ति तक पहुंचना होता था । पर ऐसे उदाहरण को व्यापक रूप नहीं दिया जा सकता । उसका उद्देश्य भी विशेष और अस्थायी ही था । उसका कार्य एक महान् आत्मा की विशाल और अन्तिम अनुभूति में उस सत्य को सिद्ध करना था जो आजकल मनुष्यजाति के लिये अत्यधिक आवश्यक है तथा जिसे पाने के लिये चिरकाल से विरोधी मतों और सम्प्रदायों में विभाजित संसार कठोर प्रयास कर रहा है । वह सत्य यह है कि सभी सम्प्रदाय एक ही समग्र सत्य के रूप और खण्ड हैं और सभी अनुशासन-प्रणालियां अपने विभिन्न तरीकों से एक ही सर्वोच्च अनुभव की प्राप्ति के लिये श्रम कर रही हैं । भगवान् को जानना, वही बन जाना तथा उन्हें पाना ही एक आवश्यक वसा है; बाकी सब बातें या तो इसके अन्दर आ जाती हैं या इसका परिणाम होती हैं । इसी

 


 

अकेले 'शुभ' की ओर हमें बढ़ना है और यदि इसकी प्राप्ति हो गयी तो बाकी सब जिसे भागवत इच्छा-शक्ति हमारे लिये चुनेगी अर्थात् सब आवश्यक रूप और अभिव्यक्तियां पीछे अपने-आप प्राप्त हो जाएंगी ।

 

     अतएव, जिस समन्वय को हम चाहते हैं वह सब प्रणालियों को संयुक्त कर देने से या उनके क्रमिक अभ्यास से प्राप्त नहीं हो सकता । वह तभी प्राप्त हो सकेगा यदि हम यौगिक अनुशासन-प्रणालियों के रूप और बाह्य प्रकार छोड़कर किसी ऐसे केन्द्रीय सामान्य सिद्धान्त को पकड़ लेंगे जो उचित स्थान और उचित मात्रा में उनके विशिष्ट सिद्धान्तों को अपने अन्दर निहित कर लेगा तथा उनका उपयोग करेगा । हमें इसके लिये किसी केन्द्रीय सक्रिय शक्ति को अपने हाथ में लेना होगा जो उनकी विपरीत प्रणालियों का सर्वसामान्य रहस्य होगी और जो, फलत:, उनकी विविध प्रकार की सामर्थ्यों और विभिन्न उपयोगिताओं को स्वाभाविक चुनाव और संयोग के द्वारा व्यवस्थित करने में समर्थ होगी ।

 

     आरम्भ में जब कि हमने प्रकृति की तथा योग की प्रणालियों का तुलनात्मक विवेचन शुरू किया था तब यही उद्देश्य हमारे सामने था और अब हम इसीकी ओर इस संभावना के साथ लौटते हैं कि इसका शायद कोई निश्चित समाधान निकल आये ।

 

     सब से पहले हम यह देखते हैं कि भारतवर्ष में अब भी ऐसी विलक्षण यौगिक प्रणाली है जिसका स्वभाव समन्वयात्मक है और जो प्रकृति के महान् केन्द्रीय सिद्धान्त से, उसकी महान् सक्रिय शक्ति से आरम्भ होती है । किन्तु यह एक अलग योग-प्रणाली है, अन्य प्रणालियों का संयोग नहीं । यह तन्त्र-मार्ग है । इसकी कुछ विशेष पद्धतियों के कारण उन लोगों के सामने जो लोग तान्त्रिक नहीं हैं इसका गौरव कुछ घट गया है, विशेषतया उसकी वाममार्गी पद्धतियों के कारण ही ऐसा हुआ है; क्योंकि ये पद्धतियां पाप और पुण्य के द्वंद्व को अतिक्रान्त करने से ही सन्तुष्ट नहीं हैं अत: इन्होंने उनकी जगह कर्म-सम्बन्धी सहज यथार्थता स्थापित करने के स्थान पर आत्म-उपभोग की असंयत सामाजिक अनैतिकता की प्रणाली विकसित कर ली प्रतीत होती है । यह सब होते हुए भी अपने मूल में 'तन्त्र' एक महान् और शक्तिशाली प्रणाली थी । यह कुछ ऐसे विचारों पर आधारित थी जिनमें कम-से-कम सत्य का कुछ अंश अवश्य विद्यमान था । दक्षिण और वाम मार्ग में इसका दोहरा विभाजन भी एक गहन अनुभव से ही शुरू हुआ था । 'दक्षिण' और 'वाम' शब्दों के प्राचीन प्रतीकात्मक अर्थ के अनुसार यह विभाजन 'ज्ञान' और ' आनन्द' के मार्गों में था । एक में प्रकृति मनुष्य के अन्दर अपनी शक्तियों, तत्त्वों और शक्यताओं के यथार्थ सैद्धान्तिक और व्यावहारिक विवेक के द्वारा अपने-आपको मुक्त करती है, जब कि दूसरे में वह यह कार्य उसके अन्दर अपनी शक्तियों, तत्त्वों और शक्यताओं की हर्षपूर्ण सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्वीकृति के द्वारा करती है ।

 

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किन्तु अन्त में इन दोनों मार्गों में सिद्धान्त-सम्बन्धी अस्पष्टता, प्रतीकों की विकृति तथा ह्रास की अवस्था पैदा हो गयी थी ।

 

     पर यदि हम यहां भी वर्तमान प्रणालियों और अभ्यासों को एक ओर रखकर केन्द्रीय सिद्धान्त की खोज करें तो हमें सब से पहले यही पता लगेगा कि 'तन्त्र'  'योग' की वैदिक प्रणालियों से स्पष्ट रूप में भिन्न है । एक अर्थ में तो वे सब मत जिनका हमने अबतक निरीक्षण किया है अपने सिद्धान्त में वैदान्तिक हैं; उनकी शक्ति ज्ञान में है, उनकी प्रणाली भी ज्ञान है, यद्यपि यह सदा ही बुद्धिद्वारा प्राप्त नहीं होता, या यह उसके स्थान पर हृदय का एक ऐसा ज्ञान हो सकता है जो कि प्रेम और विश्वास में अभिव्यक्त होता है, या यह संकल्प में स्थित एक ऐसा ज्ञान भी हो सकता है जो कर्मद्वारा चरितार्थ होता है, पर सब में योग का स्वामी 'पुरुष' ही है, वह एक चेतन आत्मा है जो जानती है, निरीक्षण करती है, आकर्षित एवं शासित करती है । किन्तु तन्त्र में प्रकृति ही स्वामिनी होती है, वह 'प्रकृति-आत्मा' अर्थात् शक्ति होती है, यह वस्तुत: विश्व में कार्य करनेवाला शक्तिगत संकल्प होता है । इस संकल्प के अन्तरङ्ग रहस्यों को, इसकी प्रणाली और इसके तन्त्र को सीखकर तथा इनका प्रयोग करके ही तान्त्रिक योगी ने अपनी अनुशासन-सम्बन्धी क्रियाओं के उद्देश्यों अर्थात् स्वामित्व, पूर्णता, मुक्ति और आनन्द को प्राप्त करना चाहा था । अभिव्यक्त 'प्रकृति' और उसकी कठिनाइयों से पीछे हटने के स्थान पर उसने उनका सामना किया था, उन्हें प्राप्त एवं अधिकृत कर लिया था । किन्तु अन्त में, जैसा कि प्रकृति का स्वभाव होता है, तान्त्रिक योग अपनी जटिल यान्त्रिक क्रिया में अपने मूल सिद्धान्त को अधिकतर खो बैठा और उन सूत्रों और गुह्य यान्त्रिक प्रक्रियाओं की वस्तु बन गया जो ठीक प्रकार प्रयुक्त होने से अभी भी फलप्रद तो होती थीं, पर अपने मूल उद्देश्य की स्पष्टता से च्युत हो गयी थीं ।

 

     इस केन्द्रीय तान्त्रिक विचार में हमें सत्य के केवल एक पक्ष का ही आभास मिलता है, बल अर्थात् शक्ति की पूजा; यही शक्ति समस्त प्राप्ति की अकेली और प्रभावकारी प्रेरणा मानी जाती है । दूसरी ओर, शक्ति के वैदान्तिक विचार में, यह 'भ्रम' अर्थात् 'माया' की शक्ति मानी जाती है और शान्त निष्क्रिय 'पुरुष' की खोज में सक्रिय शक्ति से उत्पन्न भ्रान्तियों से मुक्त होने का साधन मानी जाती है, किन्तु एक समग्र विचार में चेतन आत्मा ही स्वामी है, और प्रकृति-आत्मा उसकी कार्यकारिणी शक्ति है, 'पुरुष' की प्रकृति 'सत्' है और यह 'सत्' चेतन, पवित्र और असीम स्वयंभू सत्ता है, 'शक्ति' या 'प्रकृति' का स्वभाव 'चित्' हैयह  'पुरुष' के स्वचेतन, पवित्र और असीम अस्तित्व की शक्ति है । इन दोनों का सम्बन्ध निश्चलता और सक्रियता दो ध्रुवों के बीच में गतिमान रहता है । जब  'शक्ति' चेतन अस्तित्व के आनन्द में लीन रहती है, तो वह निश्चल होती है, जब  'पुरुष' अपनी शक्ति के कार्य में अपने-आपको उंडेलता है तो वह सक्रियता होती

 

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है; यही सक्रियता सृजन और कुछ बनने का आनन्द और आस्वाद होती है । किन्तु यदि 'आनन्द' समस्त अस्तित्व का सृजन करता है या उसे उत्पन्न करता है तो उसकी प्रणाली 'तपस्' अर्थात् 'पुरुष' की चेतना की शक्ति होती है जो सत्ता में रहनेवाली अपनी असीम शक्यता पर कार्य करती है तथा अपने अन्दर से विचारसम्बन्धी सत्य या वास्तविक 'विचार' अर्थात् विज्ञान उत्पन्न करती है । क्योंकि इन विचारों का स्रोत सर्वज्ञ और सर्व-शक्तिमान् 'स्वयंभू-अस्तित्व' में है, इन्हें इस बात का निश्चय है कि इनकी चरितार्थता सम्पन्न हो जायगी । ये अपने अन्दर मन, प्राण और ज पदार्थ के रूप में अपने अस्तित्व का स्वभाव और नियम भी सुरक्षित रखते हैं । 'तपस्' की चरम सर्वशक्तिमत्ता और 'विचार' की अचूक चरितार्थता समस्त योग का आधार है । मनुष्य में हम इन्हें संकल्प-शक्ति और विश्वास का नाम देते हैं, एक ऐसी संकल्प-शक्ति जो अन्त में स्वयं ही प्रभावशाली होती है, क्योंकि वह ज्ञानरूपी तत्त्व से बनी है; एक ऐसा विश्वास जो निम्न चेतना में एक ऐसे 'सत्य' या वास्तविक 'विचार' की सहज क्रिया है जो अभिव्यक्ति में अभी चरितार्थ नहीं हुआ है । 'विचार ' को इसी आत्म-निश्चयता का वर्णन गीता में "यो यच्छ्रदधः स एव स:'' इन शब्दों में किया गया है, अर्थात् ''मनुष्य का जो कुछ भी विश्वास या निश्चयात्मक विचार होता है, वही वह बन जाता है ।''

 

     अतएव, अब हम देखते हैं कि मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से 'प्रकृति' का वह कौन-सा विचार है जिससे हमें अपना कार्य आरम्भ करना है, और योग क्रियात्मक मनोविज्ञान के सिवाय और कुछ है ही नहीं । यह 'पुरुष' की उसकी अपनी 'शक्ति' के द्वारा आत्मचरितार्थता है । किन्तु प्रकृति की क्रिया दोहरी होती है, ऊपर की ओर और नीचे की ओर; इसे यदि हम चाहें तो दिव्य और अदिव्य भी कह सकते हैं । यह विभेद वस्तुतः क्रियात्मक प्रयोजनों के लिये ही किया जाता है, क्योंकि संसार में अदिव्य कुछ नहीं है, यदि एक विशालतर दृष्टिकोण से देखा जाय तो यह भेद शब्दों में वैसा ही अर्थहीन प्रतीत होता है जैसा कि प्राकृतिक और अति-प्राकृतिक में किया गया भेद । कारण, वे सभी वस्तुएं जो अपना अस्तित्व रखती हैं प्राकृतिक हैं । समस्त वस्तुएं प्रकृति में विद्यमान हैं और समस्त वस्तुएं भगवान् में स्थित हैं । किन्तु क्रियात्मक प्रयोजन के लिये वहां एक वास्तविक विभेद उपस्थित रहता है । जिस निम्न प्रकृति को हम जानते हैं और जो हम हैं और जो हमें तबतक रहना ही होगा जबतक कि हमारे अन्दर का विश्वास बदल नहीं जाता, वह सीमाओं और विभाजन के द्वारा कार्य करती है, उसका स्वभाव ' अज्ञान' है, उसकी समाप्ति अहंभाव के जीवन में होती है । किन्तु उच्चतर 'प्रकृति' जिसकी हम अभीप्सा करते हैं एकीकरण के द्वारा तथा सीमाओं को पार करके कार्य करती है; इसका स्वभाव 'ज्ञान' है, इसका चरम रूप दिव्य जीवन में लक्षित होता है । निम्न प्रकृति से उच्च प्रकृति की ओर जाना ही 'योग' का लक्ष्य है । इस लक्ष्य की प्राप्ति

 

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निम्न प्रकृति को त्याग करके उच्च प्रकृति में प्रवेश करने पर भी हो सकती है, जो कि सामान्य दृष्टिकोण है,या फिर यह निम्न प्रकृति का रूपान्तर करने और उसे उच्च 'प्रकृति' में ऊंचा उठाने से भी हो सकती है । वस्तुत: यही पूर्णयोग का उद्देश्य है ।

 

     किन्तु दोनों दशाओं में निम्न प्रकृति के ही किसी भाग से हमें उच्च अस्तित्व तक उठना है और योग की प्रत्येक प्रणाली अपने आरम्भ-बिन्दु या अपनी मुक्ति के द्वार को स्वयं ही चुनती है । ये प्रणालियां निम्न प्रकृति की कुछ क्रियाओं में विशेषता प्राप्त कर लेती हैं और उन्हें भगवान् की ओर मो देती हैं । किन्तु हमारे अन्दर प्रकृति की सामान्य क्रिया एक ऐसी पूर्ण क्रिया है जिसमें हमारे समस्त तत्त्वों की पूर्ण जटिलता हमारे चारों ओर की परिस्थितियों के द्वारा प्रभावित होती है और साथ ही उन्हें प्रभावित भी करती है । समस्त जीवन ही प्रकृति का योग है । जिस योग का हम अनुसरण करना चाहते हैं उसे भी प्रकृति की ही एक सर्वांगीण क्रिया होना चाहिये । योगी और एक सामान्य मनुष्य में सारा भेद ही यह होता है कि योगी अहंभाव और विभाजन के अन्दर और उनके द्वारा कार्य करती हुई निम्न प्रकृति की पूर्ण क्रिया के स्थान पर भगवान् और ऐक्य के अन्दर और उनके द्वारा कार्य करनेवाली उच्च प्रकृति की सर्वांगीण क्रिया अपने अन्दर स्थापित करना चाहता है । वस्तुत: यदि हमारा उद्देश्य संसार से भागकर भगवान् को प्राप्त करना हो तो समन्वय की आवश्यकता ही नहीं रहती और इससे समय भी नष्ट होता है । कारण, तब हमारा एकमात्र क्रियात्मक उद्देश्य भगवान् को प्राप्त करने के हजारों मार्गों में से एक ही मार्ग को ढूंना होना चाहिये, जिसे अधिक-से-अधिक छोटा होना चाहिये और तब विभिन्न मार्गों की खोज करने के लिये ठहरने की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी, क्योंकि ये सब मार्ग एक ही लक्ष्य को जाते हैं, किन्तु यदि हमारा उद्देश्य अपनी सम्पूर्ण सत्ता को भागवत जीवन के अंग-प्रत्यंग में रूपान्तरित करना है तो यह समन्वय आवश्यक हो जाता है ।

 

     और तब हमें इस प्रणाली का अनुसरण करना होगा कि हम अपनी समस्त चेतन सत्ता का भगवान् के साथ सम्बन्ध और सम्पर्क स्थापित करें और उन्हें हमारी सम्पूर्ण सत्ता को अपनी सत्ता में रूपान्तरित करने के लिये अपने अन्दर पुकारें, जिसका यह अर्थ है कि स्वयं भगवान् जो हमारे अन्दर के वास्तविक 'पुरुष' हैं साधना के साधक बन जाने के साथ-साथ योग के स्वामी भी बन जाते हैं और उनके द्वारा तब निम्न व्यक्तित्व एक दिव्य रूपान्तर के केन्द्र के तथा अपनी पूर्णता के यन्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है । परिणामत: 'तपस्' का दबाव अर्थात्

 

   'साधना' वह क्रिया है जिसके द्वारा पूर्णता अर्थात् सिद्धि की प्राप्ति होती है । 'साधक' वह योगी है जो इस क्रिया के द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक होता है ।

 

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हमारे अन्दर की चेतना-शक्ति जो दिव्य 'प्रकृति' के 'अतिमानसिक विचार' में हमारी सम्पूर्ण सत्ता पर कार्य करती है अपनी चरितार्थता अपने-आप सम्पन्न कर लेती है । दिव्य, सर्वज्ञाता और सर्व-साधक अस्तित्व सीमित और अस्पष्ट सत्ता पर छा जाता है और फिर धीरे- धीरे सम्पूर्ण निम्न प्रकृति को प्रकाश एवं शक्ति प्रदान करता है और निम्न मानव-प्रकाश और मानव-क्रिया के सब रूपों के स्थान पर अपनी क्रिया स्थापित कर देता है ।

 

     मनोवैज्ञानिक तथ्य में यह प्रणाली इस प्रकार लक्षित होती है कि अहंभाव अपने समस्त क्षेत्र और समस्त साधनों के साथ धीरे-धीरे अपने-आपको उस ऊपर के एकमेव ' अहम्' के आगे समर्पित करता जाता है जिसकी क्रियाएं विशाल और अगणित, पर सदा अनिवार्य होती हैं । निश्चय ही यह कोई छोटा-सा रास्ता या कोई सरल साधना नहीं है । इसमें अपार विश्वास की, पूर्ण साहस और, सब से बढ़कर, अडिग धैर्य की आवश्यकता पड़ती है । इसमें तीन अवस्थाएं अन्तर्निहित हैं जिनमेंसे केवल अन्तिम ही पूर्णतया आनन्दपूर्ण या दुत हो सकती है; पहली, अहंभाव का भगवान् के सम्पर्क में आने के लिये किया गया प्रयत्न, दूसरी, दिव्य क्रिया के द्वारा समस्त निम्न प्रकृति की उच्चतर प्रकृति को ग्रहण करने और वही बनने के लिये विशाल, पूर्ण और, इसी कारण, कठिन तैयारी और तीसरी, अन्तिम रूपान्तर । पर सच्ची बात यह है कि दिव्य शक्ति जो प्रायः ही अनजाने में पर्दे के पीछे कार्य करती है स्वयं हमारी दुर्बलता का स्थान ले लेती है और जब-जब हम विश्वास, साहस और धैर्य खो बैठते हैं तब-तब वह हमारी सहायता करती है । वह '' अन्धे को देखने और लँगड़े को पहाड़ पर चढ़ने की सामर्थ्य प्रदान करती है । '' बुद्धि तब ऐसे 'नियम' को जान लेती है जिसका आग्रह कल्याणकारी होता है और एक ऐसे प्रश्रय को भी जो हमें स्थिर रखता है । हृदय तब समस्त वस्तुओं के 'स्वामी ' की, मनुष्य के सखा की या जगत्- 'माता' की चर्चा करता है जो हमें सब चूकों में संभाले रखती है । इसीलिये यह मार्ग अत्यधिक कठिन होते हुए भी अपने प्रयत्न और उद्देश्य की विशालता की तुलना में अत्यधिक सरल और सुनिश्चित है ।

 

     जब उच्च प्रकृति निम्न प्रकृति पर सर्वांगीण रूप में क्रिया करती है तो उसकी क्रिया की तीन महत्त्वपूर्ण विशेषताएं दृष्टि में आती हैं । प्रथम यह कि वह एक स्थिर प्रणाली या क्रम के अनुसार कार्य नहीं करती जैसा कि योग की विशिष्ट प्रणालियों में होता है । वह अपना कार्य एक प्रकार की स्वतन्त्र, विस्तृत पर उत्तरोत्तर प्रभावशाली और उद्देश्यपूर्ण क्रिया के द्वारा करती है जो उस व्यक्ति के स्वभाव के द्वारा निर्धारित होती है जिसमें वह कार्य करती है । उसका निर्धारण उन सहायक साधनों के द्वारा भी होता है जिन्हें व्यक्ति का स्वभाव प्रस्तुत करता है तथा उन बाधाओं के द्वारा भी जो वह पवित्रीकरण और पूर्णता के रास्ते में खड़ी करता है । अतएव, एक प्रकार से इस मार्ग में प्रत्येक मनुष्य की योग-सम्बन्धी अपनी प्रणाली

 

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है । परन्तु फिर भी इस प्रक्रिया की कुछ मोटी-मोटी बातें ऐसी हैं जो सबके लिये समान हैं और जो हमें एक सामान्य प्रणाली बनाने में सहायता तो नहीं देतीं, पर फिर भी किसी शास्त्र या समन्वयात्मक योग की किसी वैज्ञानिक प्रणाली को गढ़ने की सामर्थ्य अवश्य प्रदान करती हैं ।

 

     उच्च प्रकृति की प्रक्रिया सर्वांगीण है, अत: वह हमारी प्रकृति को उसी रूप में स्वीकार कर लेती है जिस रूप में वह हमारे पूर्व विकास के द्वारा संगठित हो चुकी है और फिर वह किसी भी मूल वस्तु को अस्वीकार किये बिना सब कुछ को दिव्य तत्त्व में रूपान्तरित होने को बाध्य करती है । हमारे अन्दर की प्रत्येक वस्तु को एक शक्तिशाली शिल्पी अपने हाथ में लेता है और उसे एक ऐसी वस्तु की स्पष्ट प्रतिमूर्ति में रूपान्तरित कर देता है जिसे वह आज एक अव्यवस्थित ढंग से प्रकट करने की चेष्टा करती है । उस सदा-विकसनशील अनुभव में हम यह देखना प्रारम्भ कर देते हैं कि यह निम्न अभिव्यक्त जगत् किस प्रकार निर्मित हुआ है और इसके अन्दर की सब चीजें चाहे वे देखने में कितनी भी विकृत, तुच्छ या हीन क्यों न लगें, दिव्य 'प्रकृति' के समन्वय में किसी तत्त्व या क्रिया की ही थोड़ी-बहुत विकृत या अपूर्ण आकृति हैं । हम तब वैदिक ऋषियों के इस कथन का अभिप्राय भी समझने लगते हैं कि हमारे पूर्व पुरुष देवताओं को उसी प्रकार गढ़ते थे जैसे कि लुहार अपनी दुकान में कच्ची धातु से कोई चीज गढ़ता है ।

 

     तीसरी बात यह है कि हमारे अन्दर की भागवत दिव्य 'शक्ति' समस्त जीवन का इस पूर्ण 'योग' के साधन के रूप में प्रयोग करती है । जागतिक परिस्थितियों के साथ हमारा प्रत्येक बाह्य सम्पर्क, उसके विषयका हमारा प्रत्येक अनुभव चाहे वह कितना भी तुच्छ या कष्टपूर्ण क्यों न हो इस कार्य के लिये प्रयुक्त किया जाता है, और प्रत्येक आन्तरिक अनुभव, यहां तक कि अत्यधिक अप्रिय कष्ट या अत्यधिक दीनतापूर्ण पतन भी पूर्णता के रास्ते पर आगे ले जानेका एक कदम बन जाता है । तब हम संसार में प्रयुक्त भगवान् की प्रणाली को अपने अन्दर प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं । हम अन्धकार में प्रकाश-सम्बन्धी उसके उद्देश्य को, दुर्बलों और पतितों में शक्ति-सम्बन्धी और दुःखियों और पीड़ितों में आनन्द-सम्बन्धी उसके उद्देश्य को देखते हैं । हम यह भी देखते हैं कि निम्न और उच्च दोनों प्रक्रियाओं में एक ही दिव्य प्रणाली प्रयुक्त होती है । भेद केवल इतना होता है कि एक में उसका अनुसरण धीमे-धीमे और अस्पष्ट रूप में, प्रकृति में अवचेतन सत्ता के द्वारा किया जाता है, जब कि दूसरी में वह द्रुत गति से और चेतन सत्ता के द्वारा कार्य करती है और तब मानव यन्त्र यह जानता है कि इसमें प्रभु का हाथ है । समस्त जीवन ही  'प्रकृति' का 'योग' है और अपने अन्दर भगवान् की अभिव्यक्ति करना चाहता है । योग वह अवस्था है जहां यह प्रयत्न चेतन रूपमें कार्य कर सकता है और इसी कारण फिर यह व्यक्ति में यथार्थ पूर्णता भी प्राप्त कर सकता है । यह वस्तुत: निम्न

 

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विकास में बिखरी हुई और शिथिल रूप में संयुक्त क्रियाओं का एकत्रीकरण और उनकी एकाग्रता है ।

 

     सर्वांगीण प्रणाली का परिणाम भी सर्वांगीण ही होगा । सबसे पहले आवश्यकता है दिव्य सत्ता की पूर्ण प्राप्ति की, यहां एकमेव को उसके भेद-प्रभेद से रहित एकत्व में ही नहीं बल्कि उसके अनेक पक्षों में भी प्राप्त करना है । ये पक्ष सापेक्ष चेतना के द्वारा उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिये आवश्यक हैं । इसे एकमेव सत्ता में ही एकत्व की प्राप्ति नहीं, बल्कि कार्यों जगतों और प्राणियों की असीम विविधता में भी एकत्व की प्राप्ति होना चाहिये ।

 

     इसी प्रकार मुक्ति को भी सर्वांगीण होना चाहिये । हमारी मुक्ति ऐसी स्वतन्त्रता ही नहीं होनी चाहिये जो व्यक्ति के अपने सब भागों में भगवान्के साथ अपने अटूट सम्बन्ध से उत्पन्न होती है या जिसे 'सायुज्य-मुक्ति' कहा जाता है और जिसके द्वारा वह वियोग में और साथ ही द्वन्द में भी स्वतन्त्र हो जाता है; 'सालोक्य-मुक्ति' भी नहीं जिसके द्वारा समस्त चेतन अस्तित्व भागवत सत्ता की स्थिति में अर्थात् सच्चिदानन्द की अवस्था में निवास करता है, बल्कि इस निम्न सत्ता का भगवान् की मानव प्रतिमूर्ती में रूपान्तर होने के द्वारा हमें दिव्य प्रकृति अर्थात् 'साधर्म्य-मुक्ति' की भी प्राप्ति हो जानी चाहिये । पर सबसे अधिक पूर्ण और अन्तिम मुक्ति होती है अहंभाव के अस्थिर सांचे से चेतना की मुक्ति और उसका उस एकमेव सत्ता के साथ तादात्म्य जो संसार और व्यक्ति दोनों में वैश्व है तथा जगत् में और जगत् से परे भी परात्पर रूप में एक है ।

 

     इस सर्वांगीण प्राप्ति और मुक्ति के द्वारा ही 'ज्ञान', 'प्रेम' और 'कर्म' के परिणामों में पूर्ण समन्वय स्थापित होता है । कारण, इसके द्वारा अहंभाव से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है तथा सत्ता में सब के अन्दर और सब से परे विद्यमान एकमेव के साथ तदात्मता स्थापित हो जाती है । किन्तु प्राप्त करने वाली चेतना अपनी प्राप्ति के  द्वारा सीमित नहीं होती, हम 'परमानन्द' में, एकता और 'प्रेम' में समन्वित विविधता भी प्राप्त कर लेते हैं, जिसका फल यह होता है कि क्रीड़ा के सब सम्बन्ध हमारे लिये तब भी सम्भव रहते हैं जब हम अपनी सत्ता के उच्च स्तरों पर  'प्रिय' के साथ सनातन एकत्व बनाये रखते हैं । इसी प्रकार के विस्तार के कारण और इस कारण भी कि हम आत्मा की उस स्वतन्त्रता को प्राप्त करने में समर्थ हैं जो जीवन को स्वीकार करती है तथा जीवन के परित्याग पर निर्भर नहीं करती, हम अहंभाव, बन्धन या किसी प्रतिक्रिया के बिना अपने मन और शरीर में उस दिव्य कर्म के वाहक भी बन सकते हैं जो जगत् में मुक्त रूप से उंडेला जा रहा है ।

 

     दिव्य जीवन का स्वरूप स्वतन्त्रता ही नहीं है, बल्कि पवित्रता, आनन्द और पूर्णता भी है । जो पूर्ण पवित्रता हमारे अन्दर दिव्य सत्ता के पूर्ण चिन्तन को सम्भव बनाये और साथ ही जो इसके 'सत्य' और 'नियम' को जीवन के रूपों में ढार सके

 

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और जो जटिल यन्त्र हम अपने बाह्य भागों में हैं उसकी यथार्थ क्रिया के द्वारा उन्हें हमारे अन्दर भी पूर्ण रूप से उँडेल सके वही पवित्रता पूर्ण स्वाधीनता की शर्त है । इसका परिणाम एक पूर्ण आनन्द है, इसमें उस सब का आनन्द प्राप्त किया जा सकता है जो भगवान् के प्रतीकों के रूप में संसार के अन्दर देखा जाता है और साथ ही उसका भी आनन्द जो संसार से इतर है । यह पवित्रता मानव अभिव्यक्ति की अवस्थाओं के अनुसार दिव्य जाति के रूप में हमारी मानव-जाति की सर्वांगीण पूर्णता की तैयारी करती है और यह पूर्णता सत्ता की तथा प्रेम और आनन्द की स्वतन्त्र वैश्वता पर और ज्ञान की क्रीड़ा तथा शक्ति और निरभिमान कर्म के संकल्प की क्रीड़ा की स्वतन्त्र वैश्वता पर आधारित है । यह पूर्णता भी सर्वांगीण योग के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है ।

 

     पूर्णता के अन्दर मन और शरीर की पूर्णता भी आ जाती है, इसलिये राजयोग और हठयोग के सर्वोच्च परिणाम इस समन्वय के अत्यधिक विस्तृत सूत्र में समाविष्ट हो जाने चाहियें जिसे मनुष्य को अन्त में चरितार्थ करना है । योग के द्वारा मनुष्य-जाति को जो सामान्य मानसिक और भौतिक शक्तियां और अनुभूतियां प्राप्त हो सकती हैं, उनके पूर्ण विकास को तो कम-से-कम योग की पूर्ण प्रणाली के क्षेत्र में आ ही जाना चाहिये । बल्कि इन सब के अस्तित्व का कोई आधार ही नहीं रहेगा जब तक कि इनका प्रयोग पूर्ण मानसिक और भौतिक जीवन के लिये नहीं होगा । इस प्रकार के मानसिक और भौतिक जीवन का अर्थ अपने स्वभाव की दृष्टि से आध्यात्मिक जीवन को उसके अपने यथार्थ मानसिक और भौतिक मूल्यों में रूपान्तरित करना होगा । इस प्रकार हम प्रकृति के तीनों स्तरों और मानव-जीवन की उन तीन अवस्थाओं के समन्वय पर पहुंचेंगे जिन्हें वह विकसित कर चुकी है या कर रही है । हम अपनी मुक्त सत्ता में और कर्म की पूर्णता-प्राप्त प्रणालियों के क्षेत्र में भौतिक जीवन को अपने आधार के रूप में और मानसिक जीवन को अपने मध्यवर्ती यन्त्र के रूप में समाविष्ट कर लेंगे ।

 

     जिस पूर्णता की हम अभीप्सा करते हैं वह यदि एक ही व्यक्ति तक सीमित रहेगी तो वह यथार्थ तो होगी ही नहीं, बल्कि सम्भव भी नहीं रहेगी । क्योंकि हमारी दिव्य पूर्णता का अर्थ सत्ता, जीवन और प्रेम में दूसरों के द्वारा  और स्वयं अपने द्वारा भी अपने-आपको प्राप्त करना है; हमारी स्वतन्त्रता का और दूसरों में उसके परिणामों का विस्तार ही हमारी स्वाधीनता और पूर्णता का अनिवार्य परिणाम और सब से बड़ी उपयोगिता होगी । और, इस विस्तार के लिये किये गये सतत और आन्तरिक प्रयत्न का उद्देश्य होगा मनुष्य-जाति में उसका वृद्धिशील और पूर्णतम सामान्यीकरण ।

 

     इस प्रकार एक विस्तृत रूप से पूर्ण आध्यात्मिक जीवन की सर्वागीणता के द्वारा व्यक्ति और जाति में मनुष्य के सामान्य भौतिक जीवन का तथा मानसिक और

 

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नैतिक आत्म-संस्कृति-सम्बन्धी उसके महान् ऐहिक प्रयत्न का दिव्यीकरण हमारे वैयक्तिक और सामूहिक प्रयत्न का उत्कृष्ट रूप होगा । यह चरम प्राप्ति, जिसका अर्थ एक ऐसा आन्तरिक स्वर्गराज्य होगा जो पीछे बाहर के स्वर्गराज्य में भी उत्पन्न कर दिया जाय, उस महान् स्वप्न की भी सच्ची चरितार्थता होगी जिसे पाने की संसार के धर्म विभिन्न अर्थों में इच्छा करते आये हैं ।

 

         पूर्णता के जिस विशालतम समन्वय के बारे में हम सोच सकते हैं वही एकमात्र ऐसा प्रयत्न है जिसके अधिकारी केवल वही लोग हैं जिनकी समर्पित दृष्टि यह देख लेती है कि भगवान् मनुष्य-जाति में गुप्त रूप में निवास करते हैं ।

 

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